________________
साधु भावना
भावार्थ-परसंग त्याग, रागद्वेष विकार त्याग कर समताभाव सहित जो अपने विशुद्ध आत्मस्वरूप केवल ज्ञान स्वभाव का एकाग्न चित से ध्यान करता है, अनुभव करता है वह केवल अपने स्वभाव सुख का रसिया हैं वही अपने विघ्न बाधा रहित परमानन्द स्वरूप का अपने सिद्ध-बुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है ॥१२॥ निःस्पृह निर्भय, निर्मम निर्मला रे, करता निज साम्राज । देवचन्द्र आणायें विचरतारे, नमिये ते मुनिराय ॥१३ ॥
भावार्थ-समता भाव की साधना करते हुए जो साधक मुनि स्पृहा रहित भय रहित, ममतारहित होकर निर्मल स्वभावी बन गये हैं वे अपने केवलज्ञानादि साम्राज्य को प्रगट करने में तत्पर है
श्रीमद् देवचन्द्रजी फरमाते हैं कि ऐसे उत्तम साधक मुनिराजों को जो जिनाज्ञानुसार विचर रहे हैं उन्हे बारम्बार सविनय वंदना करें ! ॥ १३ ॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org