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साधु भावना
के द्वारा क्षय करके जब विशेष रूप से सरल-सहज स्वभावो बन जाता है, तब, वह कपट-कषाय नहीं करता है। अपने आत्म गुण सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र वीर्य को अपने-अपने कार्य में प्ररित कर मोक्षमार्ग-उत्सर्ग मार्ग साधते हैं ।
सत्तारोध भ्रमण गति चारमें रे, पर आधीने वृत्ति । वक्रचाल थी आतम दुःख लहे रे, जिम नृप नीति विरत्त ।
भावार्थ-ऐसा नहीं करने वाला जीव पोद्गलिक-विषय वासनाओं में आसक्त मनोवृति वाला होता है तथा अपने सत्ता में रहे हुए अन्तरात्मा को अष्ट कर्म रूपी बादलों से ढंका रखता है, फल स्वरूप चार गति में भ्रमण करता रहता है। अपनी इस प्रकार की टेढ़ी विपरीत चाल से जोव अनादिकाल से संसार भ्रमण करता हुआ दुख पाता है । जैसे कि राजा अन्याय एवं अनीति कर दुख पाता है । ते माटें मुनि ऋजतायें रमेरे, वमे अनादि उपाधि । समता रंगी संगी तत्त्वना रे, साधे आत्म समाधि ॥ ८ ॥
भावार्थ-इसलिये साधक मुनि अपने अनादिकाल के मिथ्या-दृष्टिपन (वक्रत्ता) को त्याग चुके हैं, तथा सम्यग्दृष्टिपन ( सरलता ) में स्थित है। वे वक्रचाल-अविरती को छोड़कर, मुनि-सर्वविरती बनकर विचर रहे हैं। अब पर में ममता न रहने से मन में समता का ऐसा रंग चढ़गया है कि वे अपने सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप निज तत्व में एक रस होकर अपने साध्य-विशुद्ध आत्म स्वरूप में समाधिस्थ रहने की साधना कर रहे हैं। मायाक्षये आर्जवनी पूर्णतारे, सवि गुण ऋज तावंत । पूर्व प्रयोगें परसंगी पणोरे, नहीं त सु कवित्त ॥६॥
भावार्थ · माया मिथ्यात्व नष्ट हो जाने पर, जीव अविरति-वक्रचाल छोड
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