________________
साधु भावना
का जीव खुद कर्ता बन कर उसके सुख दुख का भोक्ता बनता है। इस प्रकार जीव पर में अहं और मम को बुद्धि करता आ रहा है। ऐसे विपरीत बुद्धि के कारण ही वह उलटे रास्ते चलता है, संसार में जन्म मरण रूप भ्रमण करता है ॥ ३ ॥ 'क्षयोपशमिक ऋज ताने ऊपने रे, तेहिज शक्ति अनेक । निज स्वभाव अनुगतता अनुसरे रे, आर्यव भाव विवेका४।
भावार्थ-संसार में भ्रमण करते-करते जीव को जब क्षयोपशमिक लब्धि विशेष आत्मिक शक्ति प्रगट होती है, जिससे उसके लम्बी-लम्बी स्थितिवाले सातों कर्मों की अवधि एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम से भो कम रह जाती है तब जीवके भावों की शुद्धि होती है, जिससे सरल-सहज भाव उत्पन्न होते हैं, उस सहज भाव की अनेक शक्तियाँ हैं जैसे दशर्न, ज्ञान, चारित्र, वीर्य । जिससे आत्म स्वभाव के अनुकूल आचरण होता है, और उसे सहज-सरल मोक्ष मार्ग का विवेक-ज्ञान हो जाता है। अपवादें परवंचकतादिका रे,ए माया परिणाम । उत्सर्गे निज गुणनो वंचना रे, परभावे विश्राम ।।
भावार्थ-विशेष कथन है कि यदि जीव लोभवश माया-प्रपंच कर दूसरों को ठगता है तो सामान्यतया वह अपने ही सहज गुणों को प्रगट नहीं होने देता, उनसे वचित रहता हैं, तथा आर्त, एवं रोद्र ध्यान में व्यस्त रहता है। साते वरजी अपवादे आजवी रे, न करे कपट कषाय । आतम गुण निज निज मति फोरवेरे, ए उत्सर्ग अमाय ।६
भावार्थ-आत्म दर्शन में बाधक सातों दर्शनमोहनीय कर्मों को तीन करण
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org