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________________ साधु भावना सज्झाय साधक साधज्यो रे निज सत्ता इक चित्त । निज गुण प्रगट पणे जे परिणमें रे, एहिज आतम वित्त ।। भावार्थ-हे साधक ! ( जिन आज्ञानुसार चलनेवाले मुनिराज ) अन्तर में रहे हुए अपने अव्यक्त शुद्धात्म स्वरूप को ध्यान द्वारा एकाग्र मन से साधिये । साधते-साधते जब अपना केवलज्ञान प्रगट होगा, वही परमात्मा का सहज स्वभाव है ॥ १॥ पर्याय अनंता निज कारण पणे रे, वरते ते गुण शुद्ध । पर्याय गुण परिणामें कर्तृ तारे, ते निज धर्म प्रसिद्ध ।२। ___ भावार्थ-अपने सहज ज्ञान में परिरमण को पर्याय कहते हैं। अनन्त ज्ञान की समय-समय में होनेवाली अनन्त पर्यायों-अवस्थाओं में परिरमण करनेवाले परमात्मा का केवलज्ञानादि गुण विशुद्ध है। ऐसे विशुद्ध गुणों में वर्तन रूप परिणामों का कर्ता परमात्मा है, फलस्वरूप परमानन्द का भोक्ता भी। जिन प्रवचन में आत्मा के दर्शन, ज्ञान, चारित्र वीर्य रूप गुण धर्म नाम से प्रसिद्ध हैं। परभावानुगत वीरज चेतनारे, तेह वक्रता चाल । करता भोक्तादिक सवि शक्ति मां रे, व्याप्यो उलटो ख्याल।३ भावार्थ-किन्तु अनादिकाल से जीव अज्ञानवश अपने शरीरादि के सुखकी लालसा में पड़ा हुआ अपनो शक्ति का दुरुपयोग कर रहा है ! यही उसकी विषय परिणति है, यही टेढ़ी चाल है। पुद्गल जड़ से उत्पन्न गरीरादि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003824
Book TitlePanch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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