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साधु भावना
निर्भय निर्मल चित्त निराकुल, विलगे ध्यान अभ्यास । देहादिक ममता सवि वारी, विचरे सदा उदास । जगत० ३।
भावार्थ-मुनिराज सप्तभयों पर विजय प्राप्त कर निर्भय हो गये है । शुद्धात्म स्वरूप का ध्यान करते रहने से जिनका मन निर्मल हो गया है । कामनाओं-इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने से निराकुल बन गये अब मुनिराज मन-वचन, काया को स्थिर करके अपने शुद्धात्म स्वरूप के चिन्तन में, ध्यान के अभ्यास में सदा तल्लीन रहते हैं । अब शरीर में ममता न रहने से शारीरिक-सुख सन्मान आदि की इच्छा नहीं रही । अतः इनसे वे हमेशा उदासीन रहते हैं। ग्रहे आहार वृति पात्रादिक, संयम साधन काज । देवचन्द्र आणानुजाई, निज सम्पति महाराज । जगत० ४।
भावार्थ-बचे हुए आयुष्य में शरीर धारण के लिये, आत्म साधन रूप संयम पालने के लिये आहार लेना आवश्यक है। और निर्दोष आहार लाने के लिये वस्त्र पात्र आवश्यक हो जाते है । सद्गुरू देवचन्द्रजी फर्माते है कि वीतराग सर्वज्ञ भगवान के आज्ञानुसार जो मुनि आत्म कल्याण रूप संयम की आराधना करते है, वे महान साधक अपने केवलज्ञानादि अनुपम सम्पति के स्वामी बनकर जगतपूज्य बन जाते हैं।
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