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साधु भावना
उनका दर्शनोपयोग, ज्ञानोपयोग मात्र ही अपनी शक्ति है। वे अपने उपयोग को. बाहर अन्य पदार्थों में नहीं लगाते, व्यर्थ नहीं गंवाते; उनसे उदासीन रहते हैं ।
वे तो आत्म-ध्यान रूपी जहाज के खेवैये हैं, शुद्ध-आत्म ध्यान ही एकमात्र इस संसार रूपी भवजल से तरने का ही आलम्बन हैं । मुनिराज शुद्धात्म-ध्यान के योगी बन कर जन्म मरण से छुटकारा पाने के मार्ग की ओर अग्नसर हो रहे हैं । हिंसा मोस अदत्त निवारी, नहीं मैथुन के पास । द्रव्य भाव परिग्रह के त्यागी, लीने तत्व विलास ।२। जगत।
भावार्थ- इस प्रकार मुनिराज ने पोद्गलिक-सुख में मोह-ममता-राग या द्वष त्याग दिया हैं। उनके सम्बंध में मन के संकल्प विकल्प को छोड़कर निर्विकल्प बन गये हैं। वे भाव से अहिंसक बन गये हैं। अनादिकाल से अज्ञानवश. होती हुई अपनी आत्मा की हिंसा के कारणों को सम्यग् ज्ञान से जान कर शुद्धात्म ध्यान रूप सम्यक् चारित्र के द्वारा नष्ट कर रहे हैं ।
मुनिराज सभी देहधारो आत्मा को अपनी आत्मा के समान जानते हैं, मानते हैं। अत: वे किसो प्रकार के देहधारी आत्मा को मन, वचन, काया से कष्ट नहीं देते, हिंसा नहीं करते। इसलिये वे परम दयालु हैं, पूर्ण अहिंसक हैं। - ऐसे उच्च कोटि के आत्म साधक असत्य-झूठ, अदत्त-चोरी से तो कोशों दूर रहते हैं । ऐसे निवृह साधक को मैथुन-पंच इन्द्रियों को विषय वासना कैसे लुभा सकती है। ब्रह्मचर्य के तेज के सामने विषय वासना ठहर ही नहीं सकती। ___ जो महापुरुष अपने शरीर को श्मसान की होने वाली राख मानते हैं, हीरे, मानिक को पत्थर का टुकड़ा जानते हैं, वे उन्हें अपनायेंगे, यह असम्भव है। आत्म-साधक मुनिराज इन सब से परे रहकर अपने अन्तरात्मा में विराजमान केवल ज्ञानस्वभाव को अवस्थाओं के विलास में तल्लीन रहते है।
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