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श्रीमद् देवचन्द्रजी कृत
साधु भावना पद । जगत में सदा सुखी मुनिराज । पर विभाव परणत के त्यागी, आगे जात्म समाज । जगता निजगुण अनुभव के उपयोगी, योगी ध्यान जहाज जगत०१। ___ भावार्थ:-इस त्रासमय संसार में वास्तविक सुखी मुनिराज ही हैं। क्योंकि न उन्हें शारीरिक सुखों में ही रुची रही, न इन्द्रियों के विषय भोगों की कामना। जब कि किसी चीज की कामना ही नहीं, इच्छा ही नहीं , तो आकुलता ही कैसे रहेमी ?
आकुलता-अतृप्ति ही मनुष्य को अशान्त करती है । उसके सहज-सुखमय जीवन में बाधक है। मुनिराज ने जब इच्छाओं पर ही विजय प्राप्त कर लिया है, तब सहज सुख तो उन्हें स्वयं प्राप्त है ।
मुनिराज सांसारिक-पौद्गलिक-जड़ वस्तुओं में आसक्त नहीं हैं । उसमें वे मोहममता-राग या द्वेष नहीं करते, तद् विषयक संकल्प विकल्प भी नहीं करते ।
वे तो अपने मन को अन्तर्मुखी बनाकर अपने आत्म समाज में ही विचरण करते हैं । सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और सहज सुख, शान्ति ही उनका समाज
इस प्रकार अन्तर्मुखी मुनिराज का केवल ज्ञानमय आत्म-प्रदीप प्रज्वलित हो माने से, वे अपने आत्मिक गुणों का ही अवलोकन, चिन्तन करते रहते है
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