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प्रभंजना नी सज्झाय
मुनिगुण गावो भावो भावना, ध्यावो सहज समाधि। रत्नत्रयी एकच्चे खेलो, मिटे अनादि उपाधि रे । अनु १५ । ___ भावार्थ-हे भव्यो ! मुनियों के गुण गावो । शुद्ध आत्म भावना भावो ।
और सहज समाधि लगावो । फिर ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप रत्नत्रयी की एकता में खेलो। जिससे अनादिकाल से आत्मा के साथ लगी हुई कर्मों को उपाधि मिट जाये ॥१५॥ राजसागर पाठक उपगारी, ज्ञानधरम दातारी । दीपचन्द पाठक खरतर वर, देवचन्द्र सुखकारी रे । अनु १६ ।
भावार्थ-राजसागर उपाध्याय बड़े उपगारी थे। उनके बाद ज्ञानधरम उपाध्याय ज्ञान और धर्म के बड़े दाता थे । तत्पश्चात श्री दीपचन्द्र नामक उपाध्याय हुए। इसी सुखकारी और श्रेष्ठ खरतर गच्छ में पण्डित मुनि श्री देवचन्द्र हुए । १६ । नयर लींबडी मांहे रहीने, वाचंयम स्तुति गाई । आत्म रसिक श्रोताजन मनने,'साधन रुचि उपजाई रे ।अनु१७ ____ भावार्थ -सौराष्ट्र प्रदेशान्तर्गत लींबड़ी नगर में रहकर यह मुनि गुणों की स्तुति की। इससे आत्मतत्व के रसिक लोगों को आत्म साधन करने की रुचि उत्पन्न करवायी गयी । १७ । इम उत्तम-गुण-माला-गावो, पावो हरष वधाई । जैन धर्म मारग रुचि करतां, मंगल लील सदाई रे । अनु १८ ।
भावार्थ-इस प्रकार उत्तम पुरुषों के उत्तमोत्तम गुणों की माला रूप स्तुति गावो। जिससे तुम हर्ष और बधाई के पात्र बन सको ! जैन धर्म के मार्ग की रूचि रखने से सदा लीला और मंगल होते हैं । १८ । __ इति पंडित-श्री देवचन्द्र जी महाराज विरचित
प्रभंजना की सज्झाय समाप्त ।
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