________________
८८
प्रभंजना नी सज्झाय
सहस कन्यका दीक्षा लीधी, आश्रव सर्व तजायो। जग उपगारी देश विहारे, शुद्ध धर्म दीपायो रे । अनु ११ । __ भावार्थ-इस प्रकार केवलज्ञान की उत्पति से प्रभावित होकर इसके साथवाली एक सहस कन्याओं ने भी सर्व आश्रव का परित्याग करके दीक्षा लेली । उसके बाद देश देशान्तरों में विहार करते हुए शुद्ध धर्म को दिपाकर जगत का उपगार किया ॥११॥ कारण जोगे कारज साधे, तेह चतुर गाइजे । आतम साधन निर्मल साधे, परमानंद पाइजे रे । अनु १२ ।
भावार्थ-इस तरह किसी सत्पुरुष या सत्संग का निमित्त कारण मिलने पर को आत्मा अपना कार्य साध लेता है, वही चतुर कहा जाता है। आत्मा की निर्मलता जो साध्य है उसे आत्मिक साधनों द्वारा साध करके पूर्ण आनंद पाना चाहिये ॥१२॥ ए अधिकार को गुण रागे, वैरागे मन भावी । 'वसुदेवहिंडी'तणे अनुसार, मुनि गुण भावना भावी रे ।अ०१३।
भावार्थ-वैराग्य और गुणानुराग से प्रेरित होकर मैंने “वसुदेव हिंडी' के अनुसार मुनिगुणों की भावना रूप यह वर्णन कहा है । ॥१३॥ मुनिगुण थुणतां भावविशुद्ध, भवविच्छेदन थावे ।। पूर्णानन्द पद एहथी उलसै, साधन शक्ति जमावे रे। अनु१४ ।
भावार्थ-विशुद्ध भावना अन्तर रुची से मुनिगुणों की स्तुति करने से आत्मा का भव-विच्छेद होता है । तथा इससे पूर्णानन्द पद प्रगट होता है। ऐसा करनेवाला अपनी आत्मा की साधनशक्ति को मजबूत बनाता है ॥१४॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org