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पंनी लामाका
२१.
बंध अबंध ए आतमा, तु० करता अकरता एह । म०।। एह भोगता अभोगता, तु० स्यादवाद गुण गेह । भ०.११ ।
भावार्थ-यह आत्मा बन्ध भी है अबन्ध भी है । कर्ता भी है अकर्ता भी है । भोक्ता भी है, अभोक्ता भो है । इस प्रकार स्याद्वाद रूप विभिन्न गुणों का घर है ॥ ११ ॥ एक अनेक स्वरूप ए, तु० नित्य अनित्य अनादि । भ० । सदसद भावे परिणम्या, तु० मुक्त सकल उन्माद । भ० १२।
भावार्थ-यह आत्मा एक भी है अनेक भी है । नित्य भी है, अनित्य भी है, अनादि है । सत् भो है असत् भी है। ऐसे अनन्त धर्मों से युक्त अनादि आत्मा सारे उन्मादों से मुक्त है ॥ १२ ॥ जप तप किरिया खप थकी, तु० अष्ट करम न विलाय । भ० । ते सहु आतम ध्यान थी, तु० क्षण में खेरू थाय । भ० १३ ।
भावार्थ-बड़े प्रयत्न पूर्वक जप और तप आदि क्रियानुष्ठान करने से भी जिन अष्ट कर्मो का क्षय नहीं होता, वे सारे कर्म आत्मा के ध्यान से एक क्षण में क्षय हो जाते हैं ॥ १३ ॥ शुद्धातम अनुभव विना, तु० बंध हेतु शुभ चाल । भ० । आतम परिणामे रम्या, तु० एहज आश्रव पाल । भ० १४ ।
भावार्थ-जिस पुरुष को शुद्धात्मा का अनुभव नहीं है, उसके लिये शुभ-कार्य भी बंधन के कारण हैं । और आत्म भाव में रमे हुये मुनिके लिये वही कार्य आश्रय (बंध ) को रोकने वाले संवर स्वरूप हो जाते हैं 'जे वासवा ते परिसवा ४,
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