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३.
पंचं भावना सज्झाय
इम जाणी निज आतमा, तु० वरजी सकल उपाध । भ० । उपादेय अवलंब ने, तु. परम महोदय साध । भ० १५ ।
भावार्थ =रे जीव ! यों समझ करके सारी उपाधियों को छोडकर, उपादेय आत्म तत्त्व का अवलंबन ( सहारा ) लेकर परम महोदय ( मोक्ष) की साधना कर ।-१५ भरत१,इलासुतर,तेतली३,तु० इत्यादिक मुनिवृन्द भ० । आतम ध्यान थी ए तरया, तु० प्रणमे ते देवचन्द्र भि० १६।
भावार्थ भरत चक्रवर्ती, इलापुत्र, तेतली प्रधान आदि मुनिगण, जो आत्मा के ज्यान मात्र से तरे हैं। उन्हें श्री देवचन्द्र जो महाराज प्रणाम करते हैं। -१६
नोट.-१-२-३ का जीवन पढ़िये, परिशिष्ट
ढाल ६ छठी(प्रशस्ति)भावना महात्म्य
( “सेलग शत्रु जे सिद्धा" ए देशी ) भावना मुक्ति निशाणी जाणी, भावो आसक्ति आणीजी । योग कषाय कपटे नी हाणी, थाये निर्मल जाणी जी।१। __ भावार्थ -मोक्ष की निशानी समझकर तन्मय पूर्वक ( अंतर राग से) ये पांचों भावनायें भावो। जिससे योग, कषाय-कपट का नाश होकर आत्मा निर्मल होती है ।-१
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