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पंच भावना सज्झाय द्रव्य तणा परिणाम थी, तु० अगुरू लघुत्व अनित्य । भ० । सत्य स्वभाव मयी सदा, तु० असत्य तजोतुमे मित्त । भ० ७।
भावार्थ-जोव द्रव्य को परिणमनशीलता से तू अगुरुलघु ( न हल्का न भारी ) ओर नित्य है । सदा सत्यस्वभाव वाला है। हे मित्र ! असत्य-परभावों को छोड़ दे ॥७॥ निजगुण रमता रामए, तु० सकल अकल गुण खाण । भ० । परमातम पर ज्योति ए, तु० अलख अलेप बखाण । भ० ८।
भावार्थ-यही चेतन निज गुणों में रमण करने से "रमताराम" है । सारे ही अकलनीय गुणों की खान है। परमात्मा है । परंज्योति है। मन है। निलप है ॥ ८ ॥ पंच पूज्य थी पूज्य ए, तु० सर्व ध्येय भी ध्येय । म० । ध्याता म्यान अरु ध्येय ए,तु० निश्चै अभेद ए श्रेय । म०१ ।
___ भावार्थ-निश्चय दृष्टि से यह आत्मा पांचों ( अहंत, सिद्ध, प्राचार्य, पाध्याय, साप ) पूज्यों से पूज्य, सारे ध्येयों से ध्येय है। माता भी यही है, ज्यान मी यही है, तथा ध्येय भी आत्मा ही है। निश्चय नप की दृष्टि में यह मभेदभाव ही श्रेय--कल्याणकारी है ॥ ६ ॥ अनुभव करतां एहनो, तु० थाये परम प्रमोद । भ० । एक रूप अभ्यास सु, तु० शिव सुख छ तसु गोद । भ०१०
भावार्ष-इस आत्म तत्त्व का अनुभव करने से ही आनन्द प्राप्त होता है। जिसे एकरूप ( अभेदभाव ) से इस का अभ्यास है; मोक्ष सुख तो उसकी चोद में ही समझो, अर्थात् वह जीवन्मुक्त पुरुष है ॥ १०॥
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