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________________ पांचवीं तत्त्व भावना २७० नुसार समयांतर से । आत्म भावों की सदा के लिये स्थिरता हो जाना ही अक्षय चारित्र है । ज्ञान दर्शन चारित्र यहो मोक्ष मार्ग हे ॥ ३ ॥ तीन लोक त्रिहुं कालनी, तु० परिणति तीन प्रकार भ० । एक समे जाणे तिणे, तु० नाण अनन्त अपार । भ० ४ । भावार्थ-केवलज्ञान एक ही समय में तीन लोक (ऊर्ध्व-मध्य-अधोलोक) तथा तीन काल ( अतीत-अनागत-वर्तमान ) की, तोन प्रकार ( उत्पाद-व्ययध्रौव्य ) की परिणति को जान लेता है । अनन्त द्रव्य तथा अनन्त द्रव्यों की अनन्त अवस्थाओं को एक ही साथ में जानने के कारण ज्ञान अनन्त एवं अपार कहा जाता है ।४। सकल दोपहर शाश्वतो, तु० वीरज परम अदीन । भ० । सूक्ष्म तनु बंधन विना, तु० अवगाहना स्वाधीन । भ० ५ । भावार्थ-आत्म वीर्य ( आत्म शक्ति ) सारे दोषों को हरनेवाला हैं । तथा परम उल्लासमय और शाश्वत है। सूक्ष्म शरीर (तैजस और कार्मण ) के बन्धन बिना उसकी स्वाधीन ( स्वतंत्र ) अवगाहना है ॥ ५ ॥ पुद्गल सकल विवेक थी, तु० शुद्ध अमूर्ति रूप । भ० । इन्द्रिय सुख निस्पृह थई, तु० अकषाय अबाह स्वरूप । भ० ६ । भावार्थ-सारे पुद्गलों को दूर करने पर आत्मा अमूर्त और शुद्ध है। इन्द्रियजनित सुखों को स्पृहा त्यागने से आत्म स्वरूप निखर आता है, आत्मा को अकषाय तथा अव्याबाध स्वरूप माना गया है ।। ६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003824
Book TitlePanch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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