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सत्व भावना
हैं तब कोई विरले पुरुष ही आत्मा का ध्यान घर सकते हैं अर्थात् केवल बातों से कुछ सिद्धि नहीं होती, अंतिम समय आपदाओं के आनेपर भी समभाव व मात्म ध्यान बना रहे, तभी सिद्धि मिलेगी -१६
अरति करी दुःख भोगवे, परवश जिम कीर । तो तुज जाणपणा तणो, गुण केवो धीर ॥२० रे जीव०॥ भावार्य =यह तो निश्चित है कि रोग और विपत्तियाँ के सहे बिना कोई चारा नहीं। चाहे कोई रो कर सहे, या हंस कर। जैसे पिजरे में पड़ा हुआ तोता परवशता से दु:ख भोगता है, वैसे ही यदि तू रो करके कष्ट के दिन गुजारता है तो हे धीर ! तेरे पाये हुये ज्ञान का कौन सा गुण हुआ ? फलितार्थ यह है कि विपत्तिकाल में हाय । यह दुख क्यों आ गया, कैसे छूटेगा ? ऐसा आत ध्यान नये कर्मो का बंध करने वाला है। समता से कष्टों के :सहने का यह लाभ है कि पिछले कर्म भोग लिये जाते हैं और नये कर्मो का बंध नहीं पड़ता-२०
शुद्ध निरंजन निरमलो, निज आतम भाव । ते विणशे कहे दुःख किसो, जे मिलियो आव।।२१ रेजीव०॥ भवार्थ =तेरी आत्मा का स्वभाव या स्वरूप तो शुद्ध निरंजन और निर्मल है इसके अलावा जो कर्मों के योग से शरीर, धन परिजनादि मिले हैं,उ नके विनास से तुझे दुःख कैसा ! अर्थात् किंचित भी कष्ट नहीं होना चाहिये, क्योंकि उनका आत्मा के साथ कोई तात्विक सबंध नहीं।-२१
देह गेह भाड़ा तणो, ए आपणो नोहि । तुज गृह आतम ज्ञान ए, तिण मांहे समाहि ॥२२रेजीव०॥
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