________________
शान सुधारस
जो ज्ञाता दृष्टा सुखानुभूति का अनुभव करने वाला है वह चमदृिष्ट से दिखाई नहीं देता फिर भी उसके अभाव में जगत निष्क्रिय है। रूपी पदार्थ नाना प्रकार के विकारों से युक्त है, शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श जिसके गुण है, और तू ज्ञान दर्शनादि संयुक्त है तेरा इसका प्रेम कैसा ? इस जड में तो प्रेमानुभूति ही नहीं है और न इसे निज पर का ज्ञान ही है। फिर यह तेरे अनन्त गुणों से कैसे परिचित हो सकता है ? फिर प्रेम कैसा ! जिस प्रकार तूं सर्वस्व भुलाकर पुद्गल पर आशक्त हैं उसी प्रकार यदि यह भी तेरे पर अनुरक्त हो तब वो इस प्रेम में मजा है शोभा भी है, । वर्ना जड और चेतन की जीवित और मृतक की कैसी प्रीत ? सती का प्रेम मूढ़ नहीं जानता, वैसे तेरा प्यार यह जड नहीं समझता।
हे जीव ! संतोष से विश्वास कर कि तू अकेला है यह सब संसर मिथ्या है, ऐसा जानने वाला ही स्वभावरस में रमण कर शान्तरस आस्वादन करता है। हे चेतन । आज पर्यन्त तू अपने गुणों से, महिमा से अनभिज्ञ रहकर बाह्य सुखों में भटकता रहा है। मन में विकल्प करता रहा कि कौन से मान को ग्रहण करू ? किस क्रिया से मुक्ति होगी। मिथ्या
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org