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शान्त सुधारस
में गंडासी से पकड़ कर जल में डुबा देने पर वह स्वभाविकता की ओर असर होता है फिर भी जल में डालने के साथ एक दम ही न तो वह शीतल ही हो जाता है, और न चिकना व कठोर ही बनता है। कुछ समय जल - निवास करने के पश्चात् ही उसमें सहजता आती है । उसी प्रकार सुखपिण्ड आत्मा, मोहाधीन, मिथ्यात्व अविरति आदि अग्नि में दहकता है । उसे सम्यग् दर्शन, चारित्र रूप गंडासी से पकड़ कर उपशम रूप ज्ञानजल में डुबा देने पर भी एकाएक मोहजन्य ताप से मुक्त नहीं हो पाता - धीरे-धीरे ही स्वस्थ होता है ।
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हे जीव, तूं व्यर्थ ही अनादिकाल से मिथ्यात्व, अविरति आदि तापों से तपता रहा, । किन्तु, कोई चिन्ता नहीं ! तेरे जैसी ही एक नहीं, अनेक आत्माएँ, इसी उपशम जल में डुबकी लगाकर, शान्त हुई है । मात्र एक बार मोहनिद्रा से जागृत होजा ! फिर अपने सहज शान्तरस में अवश्य समाधि प्राप्त करेगा ।
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हे चेतन तू अपने से भिन्न जो भी पदार्थ देखता है वे सभी चेतनाशून्य है । उन्हें सुखानुभव नहीं होता । लेकिन
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