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________________ शान्त सुधारस श्रीमंताई मेरे चरणों तले होगी । ज्यों-ज्यों धनी, मानी, गुणवंतों को देखता है, त्यों-त्यों मन ही मन इर्षा, द्वष डाह से जलभुन कर खाक हो जाता हैं। परसुख असहिष्णुता से सतत पीडित रहता है । कैसे इस सुख को चुराकर अपना बनाऊ इसी मनोरथ में गर्क चित्त चौर्यानुबंधी रौद्रध्यान करता है। ४-परिग्रह संरक्षणानुबंधी रौद्रध्यान: घोर आरंभ समारंभ से परिग्रह संग्रह करू । जीव हिंसा करके भी धन को बचाकर किसी भी उपाय से हो मैं धनवान बनू । कोई मेरा धन चुरा न जाय; ऐसी शंका से सभी को चोर समझे, धन के मामले में अपने स्त्री, पुत्रादि का भी विश्वास न करे, अत्यधिक लोभाभिभूत स्वयं अन्यों को ठगता है, अपने जैसा सभी को ठग मानता है । हाथी, घोड़े रथ, दास, दासी, स्वर्ण रत्न धन, धान्यादि असीम परिग्रह को देख-देख फूला नहीं समाता, ऐसा मानता है मानो स्वयं साक्षात् परमात्मा ही हो। मेरे जैसा संसार में कोई नहीं, जो हूँ मैं ही हूं। इस प्रकार गर्वोन्मत्त न करने योग्य आचरण करता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003824
Book TitlePanch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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