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________________ पंच भावना सज्झाय सर्व अनित्य अशाश्वतो, जे दीसे एह । तन धन सयण सगा सहु, तिणसु श्यो नेह ।रे ३। भावार्थ-इस जगत में जो भी दृश्यमान पदार्थ हैं, । वे सभी पौद्गलिक हैं क्योंकि द्रव्यों में रूपी द्रव्य वह एक ही है ये सारे दृश्यमान पदार्थ अनिस्य और मशाश्वत हैं। इसलिए धन-तन-स्वजन -सगों आदि अनित्य वस्तुओं पर स्नेह कसा ? अर्थात् इन सब से स्नेह करना उचित नहीं है ॥३॥ जिम बालक बेल तणा, घर करीय रमत । तेह छते अथवा ढहे, निज-निज गृह जंत । रे ।। भावार्थ-जैसे बच्चे गीली रेत के घर बनाकर खेलते हैं। उन घरों के प्रति पालकों के मन में क्षणिक आसक्ति ही होती है क्योंकि उन घरों के ढह जाने पर गा उनके रहने पर भी उन्हें वैसे ही छोड़कर बालक अपने-अपने घर चले जाते हैं। इसी तरह संसारी लोग भी अपने बनाये हुए घरों को छोड़कर परलोक को चल देते हैं। अतः इनको अपना मानकर आसक्त होना उचित नहीं ॥४॥ पंथी जम सराय मां, नदी नाव नी रीति । तिम ए परियण तो मिल्यो, तिण थी शीप्रीति । रे! भावार्य जैसे धर्मशाला में पथिक ( राहगीर) मिलते हैं और विछुर जाते है। मथवा नदी को पार करने के लिये जहां नौकायें लगी हुई हों, वहां उन नावों पर साथ में बैठकर पार उतरने वाले मुसाफिर अपने-अपने रास्ते से चले जाते हैं। वैसे ही इस संसार में स्वजन संबन्धियों का मेला मिला है, इनसे प्रीति कैसी ? ये सारे अपना-अपना आयुष्य अथवा स्वार्थ पूरा होने पर उठ जायेंगे, विधुर पायेगे ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003824
Book TitlePanch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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