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ढाल तीसरी -सत्त्व भावना की
(हवे राणी पदमावती-- ए देशी...) रे जीव ! साहस आदरो, मत थाओ दीन ।
सुख दुःख संपद आपदा, पूरव कर्म आधीन । रे जीव १। भावार्थ=अब तीसरी सत्व-भावना का वर्णन चलता है । कहीं कहीं ऐसा हुआ करता है कि महान तपस्वी मुनियों को भी सत्त्व-हीन भावना मटका देतो है। इसलिये मुनियों को ही क्या, प्राणीमात्रको सत्त्व भावना की आवश्यकता है। रे जीव ! साहस रखो । दीन मत बनो। तेरे जीवन में होने वाले ये सुख, दुःख, संपदा, आपदा ( विपत्ति) पूर्व-कर्मों के आधीन हैं। तुम हिम्मत मत हारो। यह समझो कि यह सारा सुख व दुख अपने ही किए हुये कर्मों का फल है। मोर इन्हें समभाव से भोग लेना ही कल्याण का मार्ग है ॥ १॥
क्रोधादिक वसे रण समे, सह्या दुःख अनेक । ते जो समता मां सहे-तो खरो विवेक-रे जीव । रे । भावार्थ-क्रोध, अहंकार, लोभ, प्रतिशोध आदि की भावनाओं से तो तेने युद्ध क्षेत्र में अनेक कष्ट सहे हैं । परन्तु उदयमें आये हुए कर्मों के फल स्वरूप कष्ट यदि तू समभाव से सह लेता हैं तो तुम्हारा विवेक सच्चा-खरा कहा या गिना जायगा ॥२॥
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