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________________ सत्य भावना ज्यां स्वारथ त्यां सह ए सगा, विण स्वारथ दूर। पर काजे पापे भले तूं किम होये शुर ६ रे। भावार्य=रे जीव ! जिनको तू सगा समझता है, वे स्वार्थ पर्यन्त सगे है । बिना स्वार्थ दूर हो जायेंगे । सोच तो सही तू औरों के लिगे पाप कार्य करने में बूरवीर क्यों हो रहा है ?--॥ ६ ॥ तज बाहिर मेलावडो, मिलियो बहुवार । चे पूरव मिलियो नहीं, तिणसू धर प्यार । रे ७। भावार्थ=रे जीव ! यह वाहिर का मेला (मिलाप-लाप) छोड़ दे। ऐसा मेग जो तुझे पहले भी बहुत वार मिल चुका है। जो मेला तुझे कभी नहीं मिला, ऐसे अपूर्व आंतरिक ( आत्मस्वरूप ) मेले से प्रेम कर ! महापुरुषों, सत्पुरुषों व आत्मिक सद्गुणोंसे प्रेम कर ! उनको ही प्राप्ति दुर्लभ है, अबतक मिल न सकनेसे अपूर्व है। ' चक्री हरि बल प्रतिहरी, तस विभव अमान । ते पण काले संहरया, तुज धन श्ये मान । रे । भावार्थ-रे जीव ! तेरे पास वैभव है कितना हीक ? इस तुच्छ वैभव पर भी तूं इतना अभिमान करता है ? जरा सा सोच ! कि, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, प्रतिवासुदेव आदि महापुरुषों का वैभव अमित होते हुए भी कालने सारा हरण कर लिया अर्थात् नामो-निशान मिटा डाला । तब तेरी हस्ती ही क्या है ? उनकी तुलना में तेरा धन है कितना सा ? ॥८॥ हा हा हुँतो तू फिरै, परियण नी चिंत । नरक पड्यां कहै तुजने, कोण करे निचिंत ।रे । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Educationa International
SR No.003824
Book TitlePanch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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