________________
पंच भावना सम्झाय
भावार्थ-बड़ा खेद है कि त् परिजनों की चिंता करता हुआ थर-उपर पर काट रहा है और दिन रात पापकर रहा है। परन्तु उन पापोंके पाल स्वरूप तेरी दुर्गति होगी, तब तुझे निश्चित करनेवाला (छुड़ानेवाला) कौन है ? अर्थात् कोई नहीं। परिजनों की तो तू. इतनी चिंता करता है पर अपने आत्म कल्याण की चिन्ता नहीं करता, यही सबसे बड़े दुख की बात है ॥ ६ ॥
रोगादिक दुःख ऊपने, मन अरति म धरेव । पूरव कृत निज कर्म नो; ए अनुभव देव । रे १० । भावार्थ=रे जीव ! रोग-शोक आदि दुःख उत्पन्न होने पर तू मन में परति ( अशान्ति ) मत धारण कर । यह सोच कि वह तब तेरे ही किये हुये पूर्व कर्मों के फल का अनुभव ( परिणाम ) है ।-१०
एह शरीर अशाश्वतो, खिण में छीजत। प्रीत किसी ते उपरे,जे स्वारथवंत ।रे ११ ।
भावार्थ-तू औरों की बात जाने दे। तेरा यह शरीर भी एक क्षण में छीजनेवाला है, अशाश्वत है। स्वार्थी है। इससे प्रीति कैसी ? अर्थात् इस स्वार्थी परीर से भी प्रीति करना उचित नहीं।-११
ज्यां लगे तुज इण देह थी, छ पूरव संग।
त्यां लगे कोटि उपाय थी, नवि थाये भंग ।रे १२ । भावार्थ =यह भी निश्चित है कि, जबतक इस देहके साथ तेरा पूर्वसंग (आयु कष्ट बंबन ) है तब तक तो कोटि उपाय करने पर भी इसका नाश महीं होगा, इसलिए इसके नष्ट होने की चिन्ता न कर ॥१२॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org