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सत्व भावना आगल पाछल चिहुं दिने, जे विणसी जाय
रोगादिक थी नवि रहे, कीधे कोटि उपाय ॥१३रेजीव०॥ भावार्थ =दो दिन पहले हो या पीछे, पर यह शरीर विनाश होनेवाला ही है, और कोड़ उपाय करके भी उसे रोगादि से मुक्त नहीं रखा जा सकता। अतः नष्ट होनेवाले एवं रोगों के भंडार इस शरीर पर प्रीति करना युक्त नहीं -११
अंते पण एने तज्यां, थाये शिव सुख ।
ते जो छूटे आप थी, तो तुज़ श्यो दुःख ॥१४ रे जीव०॥ ___ भावार्थ-आखिर तो इस शरीर (कर्म) को छोडने से ही मोक्ष के सुख मिलेंगे । अतः यह शरीर अपने आप छूट रहा है, तो तुझे दुःख क्यों होना चाहिए। एक न एक दिन इस शरीर को तो छोडना ही पडेगा न ? -१४
ए तन विणसे ताहरे, नवि कोई हाण ।
जो ज्ञानादिक गुण तणो, तुज आवे झाण ॥१५रेजीव०॥ भावार्थ-तुझे यदि यह ध्यान हो जाय, कि ज्ञान-दर्शन-आदि गुण' ही मेरी चीजें है। तो इस शरीर के विनाश होने से तेरी कोई हानि नहीं है, क्योंकि तेरे गुण तो तेरे पास हैं। शरीर तो पुद्गलों से बना होने से आत्म से पर ही है, यह जाता है तो जाने दे, उसके जाने की चिन्ता न कर ।-१५
तू अजरामर आतमा, अविचल गुण राण । क्षण भंगुर जड देह थी, तुज किहां पिछाण।।१६ रेजीव०॥ भावार्थ-तू अजर-अमर-अविचल गुणों का राजा-आत्मा है। इस क्षणभंगुर जा (बचेतन) शरीर से तेरी पहिचान वास्तविक नहीं है । तेरी पहचान तो शान
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