SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंच भावना सज्झाय भावार्थ- यह जितना भी दोष है, वह सारा पर (पुद्गल ) को ग्रहण करने से है। पर-संग (पुद्गलों के संग ) से आत्म गुणों की हानि होती है । व्यवहार दृष्टि से भी "पर धन नाही' चोर कहा जाता है व कष्ट पाता है । आहारादि ग्रहण करना भी पर पुद्गलों का ही ग्रहण हैं। अतः पर संग को छोड़ कर एकाकीपन रखना ही सुखों की खान है ॥ १० ॥ पर संयोग थी बंध छ रे, पर वियोग थी मोक्ष । तेणे तजी पर मेलावडो रे, एकपणो निज पोष रे प्रा०॥१॥ मावार्थ =पुद्गलों के संयोग से बंध है और इनके वियोग से मोक्ष । इसलिये पर का मिलाप छोडकर एकाकीपन का पोषण कर अर्थात् तेरा इन पर संयोगों से कोई सम्बन्ध मान । मैं अकेला हूँ, मेरा इनसे कोई सम्बन्ध नहीं, ऐसे भाव को पुष्ट करता रह -११ जन्म न पाम्यो साथ को रे-साथ न मरशे कोय । दुःख व्हेंचवा को नहींरे, क्षणभंगुर सहु लोय रे प्रा.॥१२॥ भावार्थ- न तो कोई तेरे साथ जन्मा है न कोई तेरे साथ मरेगा ही। बीते-जी भी तेरे रोगादि दुख में हिस्सा बंटानेवाला कोई नहीं है, अपने कष्ट तुझे स्वयं ही भोगने पड़ते हैं । सोच ! सारा संसार ही क्षणभंगुर है ॥ १२ ॥ परिजन मरतो देखीने रे, शोक करे जन मूढ । अवसर वारो आपणो रे, सहु जन नी ए रूढ रे प्रा०॥१३॥ भावार्थ-किसी कुटुम्बी का मरण देखकर मनुष्य शोक करता है। परन्तु सोचना चाहिए, कि अवसर आने पर तेरा भी बारा आनेवाला है । क्योंकि यो बन्मे है, वे सारे मरनेवाले है ॥१३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003824
Book TitlePanch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy