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जाय ।
सुरपति चत्री हरि बलि रे, एकला परभव तन धन परिजन सहु मिली रे, कोई सखायन थायरे प्रा० ॥ १४ ॥
भावार्थ - इन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, जैसे महापुरुष भी परभव में अकेले हो जाते हैं । तन, धन, परिजन में से कोई भी उनका सहायक व सांधी नहीं बनता -- ॥ १४ ॥
ज्ञायक रूप हूँ एक छूरे, ज्ञानादिक गुणवंत । बाह्य जोग सहु अवर छैरे, पाम्यो बार अनंत रे प्रा० ॥ १५॥
भावार्थ-ज्ञानादिक अनन्त गुणोंवाला मैं शायक स्वरूप अकेला बामा
इन बाह्य संयोगों को छोड़ने में ढील नहीं
हूँ ।
मैं
बाकी के सारे बाह्य संयोग मेरे से भिन्न है।
पार पा चुका हूँ ।
इसलिये इनको
२५
करना चाहिए । १५ ॥
करकंड१ नमि२ नग्गई ३ रे, दुम्मुह४ प्रमुख ऋषिराय । मृगापुत्र५ हरिकेशीना६ रे, वंदू हूँ नित पाय रे प्रा० ॥ १६ ॥ साधु चिलाती७ सुत भलो रे, वलि अनाथी तेम । इमनि गुण अनुमोदतां रे, 'देवचन्द्र' सुख क्षेम रेप्राणी |१७| भावार्थ - करकंडु, नमिराजर्षि, नगई, दुम्मुह, ये ४ प्रत्येक बुद्ध हैं । मृगापुत्र, हरिकेशी, चिलातीपुत्र, तथा अनाथी मुनि वर्गर मुनियों के चरणकमलों में नित्य नमस्कार करता हूं। क्योंकि ऐसे मुनिजनों के ( प्रशंसा ) करने से सुख और कल्याण होता है। महाराज कहते हैं ॥ १६-१७ ॥
नोट :-१-२-३-४-५-६-७-८ को जोगनियाँ परिशिष्ट में पढ़िये ।
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गुणों की अनुमोदना
यों श्री देवचन्द्र जी
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