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श्रुत भावना
सूक्ष्म अर्थ अगोचर दृष्टि थी रे, रूपी रूप विहीन । जेह अतीत अनागत वर्तता रे, जाणे ज्ञानी लीन । २ श्रु० |
भावार्थ = अतीत, अनागत ( भविष्य ) और वर्तमान काल के जो रूपी ( मूत) और अरूपी ( अमूर्त ) सूक्ष्म-अर्थ ( रहस्य ) हैं, ज्ञानी पुरुष उन्हें अपनी अतीन्द्रिय (आत्म) दृष्टि ( ज्ञान चक्षु ) से जानता है ॥२॥ नित्य अनित्य एक अनेकता रे, सदसद् भाव स्वरूप ।
छः ए भाव एक द्रव्य परिणम्या रे, एक समय मां अनृप । ३ श्रु ५० भावार्थ -- यह त्रिकाल सत्य है, कि एक ही समय (सूक्ष्म से सूक्ष्म - काल) में, एक ही पदार्थ में निज निज स्वरूप से छहों भाव परिणमते हैं । वे छः भाव ये है -१ नित्यता, अनित्यता, ३ – एकता, ४4. - अनेकता, ५--सत् ओर ६० असत् । श्रुत ज्ञान द्वारा द्रव्यों के इन ६ भावों को विचारे ॥ ३ ॥ उत्सर्ग अपवाद पदे करी रे, जाणे सहु श्रुत चाल । वचन विरोध निवारे युक्ति थी रे, थापे दूषण टाल । ४ श्रु ०।
भावार्थ... श्रुत की सारी चाल ( गति ) को उत्सर्ग ( निश्चय ) और अपवाद ( व्यवहार मार्ग ) से जाने, कि कौन-सा वचन उत्सगं का है, और कौनसा कथन व्यवहार आश्रयी है । आगम-वचनों में भी यदि कहीं-कहीं वचन - विरोध दृष्टिगत हो, तो उसे युक्तियों द्वारा हटाकर निर्दोष वचन की स्थापना करे ॥ ४॥
द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक घरे रे, नय-गम-भंग अनेक | नय सामान्य विशेष बेहुँ ग्रहे रे, लोकालोक विवेक । ५ ।
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