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पंच भावना सज्झाय
भावार्थ- किसी शास्त्रीय पद की स्थापना करते समय द्रव्यार्थिक नय ( द्रव्यके गुणोंकी अपेक्षादृष्टि) और पर्यायार्थिक नय ( पर्याय अवस्था की अपेक्षा दृष्टि ) को ध्यान में रखे । नय - गम और भङ्ग अनेक अर्थात् अनन्त हैं, उनका यथासाध्य लक्ष्य रखें पर उनका पार नहीं । अतः कम-से-कम सामान्य और विशेष इन दोनों नयों को लेकर लोका- लोक का विवेचन करे ॥ ५ ॥
नन्दि सूत्रे उपगारी कह्यो रे, वलि अशुच्चा द्रव्य श्रुत ने वांद्यो गणधरे रे, भगवई अंगे भावार्थ पांच ज्ञानों में से उपगार करनेवाला एक श्रुतज्ञान ही है । बाकी के चार ज्ञान तो स्थापना मात्र हैं, ऐसा श्री नन्दीसूत्र में कहा है । तथा श्री भगवती सूत्र के शतक १ उद्देश ३१ में “ असोच्चा केवली" के अधिकार में भी इसका प्रमाण है । इसी सूत्र के प्रारम्भ में स्वयं श्री गणधरदेव के द्रव्य श्रुत को नमस्कार करने का पाठ भी है... " नमो सुयदेवयाए" । अतः श्रुताभ्यास का महत्व स्वतः सिद्ध है ॥ ६ ॥
श्रत अभ्यासे जिनपद पामिये रे, छह अंगे साख ।
श्रुत
नाणी केवलनाणी समोरे, पन्नवणिजे भाख । ७ श्रुत। भावार्थ... श्री ज्ञाता सूत्र के अन्दर तीर्थङ्कर पद प्राप्ति के वीइ स्थानों का वर्णन है । उनमें श्रुत अभ्यास से भी तीर्थङ्कर गोत्र कर्म का बन्ध होना बतलाया है । श्री पन्नवणा सूत्र में तो श्रुतज्ञानी को केवलज्ञानी के समान कहा है । केवलज्ञान से जाने हुए पदार्थों की प्ररूपणा तो श्रुतज्ञान के आधार से ही
नहीं है । तथा
होती है । केवलज्ञानी और श्रुतज्ञानी की प्ररूपणा में कोई अन्तर जो पदार्थ श्रुतज्ञान के अविषय हैं, उनकी प्ररूपणा न तो किसी केवलज्ञानी ने की है, न कोई कर सकता है ॥ ७ ॥
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ठाम ।
नाम । ६ श्रुत ।
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