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श्रुत भावना
श्रतधारी आराधक सर्व ते रे, जाणे अर्थ स्वभाव । निज आतम परमातम सम ग्रहे रे, ध्यावे ते नय दाव । ८श्रुत ।
भावार्थ...श्रतधारी को सर्व आराधक कहा है, तथा श्रुतविहीन चारित्री को देश ( अंश)...आराधक। क्योंकि ज्ञानी पदार्थो के स्वभाव को पिछानता है, तथा संग्रह नय की दृष्टि से अपनी आत्मा को परमात्मा के समान समझता हुआ ध्यान करता है। ॥ ८ ॥ संयम दरशन ते ज्ञाने बधे रे, ध्याने शिव साधंत ! भव स्वरूप चउगति नो लखे रे, तेणे संसार तजंत । ६ श्रुत ।
भावार्थ... दर्शन और चारित्र की मूलभित्ति ज्ञान है। कहा भी है--- 'नाणेण विना न हुंति चरण गुणा', अर्थात ज्ञान के बिना चारित्र गुण नहीं होता । ज्ञान से ही दर्शन और चारित्र की शुद्धि तथा वृद्धि होती है । ज्ञानी पुरुष ध्यान द्वारा मोक्ष को साधना करता है । ज्ञान से ही चारों गतियों का स्वरूप जाना जाता है । जानने के पश्चात् संसार का त्याग करने का काम भी ज्ञानी पुरुषों का है, "ज्ञानस्यफलं विरतिः ॥ ६ ॥ इन्द्रिय सुख चंचल जाणी तजे रे,नव-नव अर्थ तरंग। जिम-जिम पामे तिम मन उल्लसे रे, वसे न चित्तअनंग।१०श्रुत ।
भावार्थ...श्रुताभ्यासी मुनि इन्द्रिय-सुखों को चञ्चल जान कर छोड़ता है। तथा ज्यों-ज्यों शास्त्रों के नये-नये अर्थों की लहरियों को प्राप्त होता है, त्यों त्यों उसका मन उल्लास से भर जाता है। ऐसे मुनि के मन में अनङ्ग ( काम वासना) नहीं बस सकता । वह तो शास्त्राभ्यास व चिंतन में ही लीन रहता है ।१.
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