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ढाल-पहली श्रुत भावना की
लोक स्वरूप विचारो आतम हित भणीरे---ए देशी श्रत अभ्यास करो मुनिवर सदा रे, अतिचार सहु टोलि हीण अधिक अक्षर मत उच्चरो रे, शब्द अरथ संभालि।श्रतक्ष ___ भावार्थ-ये भावनायें मुनियोंके लिए बतलाई गई हैं इससे कोई यह न समझे, कि श्रावकोंके लिए इनका क्या उपयोग है ? परन्तु यह एक ऐसी वस्तु है, कि सदा बोर सभी के लिए उपयोगी थी, है, और रहेगी । भावनाओं के प्रधान अधिकारी मुनि होते है अतः मुनियों को सम्बोधित करके कहा गया है कि हे मुनिवर ! सदा ज्ञान का अभ्यास करो। यहां पर 'सदा' शब्द हमें सूचित करता है, कि निरस्तर का श्रुताभ्यास जड से भी जड व्यक्ति को श्रुतधारी ( ज्ञाता ) बना सकता है। कहा भी है; कि “हमेशा एक श्लोक याद करो, एक न कर सको तो आधा करो, आधा न कर सको तो चौथाई करो और वह भी न कर सको तो चतुर्थांश का अष्टमांश अर्थात् एक अक्षर तो अवश्य याद करो।"
ज्ञानाभ्यास करते समय यह भी आवश्यक है, कि ज्ञान के सारे अतिचार दोष) टाले जायें। जो पाठ जिस रूप में है, उससे हीन (कम) अक्षर तथा अधिक मक्षर बोलना आदि चौदह अतिचार ( दोष ) हैं। फिर जो पाठ बोला जाय, उसका शब्द (व्याकरण ) और अर्थ भी संभालो (ध्यान में लो)। क्योंकि तोते वाली रटना कल्याणकारिणी नहीं हो सकती ॥ १ ॥
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