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साधु की पांच भावनायें
पार कषाय, तीन योग रूप इन बारह (कर्म बंध के स्वरूप शत्र ओं को जीतने से अपध्यान पर विजय पाता है और चित्त की तरंगें ( विकल्प ) शान्त व शमित होती है ॥४॥
प्रथम भावना श्रुत तणी, बीजी तप तिय सत्त्व । तुरिय एकता भावना, पंचम भाव सुतत्व ॥शा
भावार्थ-पांच भावनाओं के नाम ये हैं १ श्रुत भावना २ तपभावना । सत्त्व भावना-४ एकत्त्व-भावना और ५ तत्त्व भावना ॥५॥
श्रत-भावना मन थिर करे, टाले भवनो खेद । तप भावना काया दमे, वामे वेद उमेद ॥६॥ भावार्थ-कोनसो भावना से कौनसा लाभ होता है ! यह इस पद्य में कहा गया है । पहली श्रुत-भावना से मुनि अपने मन को स्थिर करे तथा संसार से उत्पन्न खेद को टाले । दूसरो तप भावना द्वारा बाह्य-दृष्टि से काया का दमन करे । और आंतरिक भावों से वेद (स्त्री-पु-नपुंसक ) की उमेद को घोड़े (अर्थात् वेदोदय को उपशमावे ) ॥६॥ . सच भावना निर्भय दशा, निज लघुता इकभाव ॥
तत्व भावना आत्म गुण, सिद्ध साधना दाव॥७॥ भावार्थ-तीसरी सत्त्व-भावना से निर्भय-दशा को प्राप्त करे । चोथी एकत्व भावना से अपनी लघुता ( कों वपापों का हल्कापन ) को पावे तथा पाँचवीं भावना तत्त्व से आत्म गुणों की साधना द्वारा सिद्ध बनने का दाव लगावे ॥७॥
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