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________________ ढंढ़ण मुनि सज्झाय जिन भाखे कृत कर्मनो, एहवो छ व्यवसायो रे. धन० पूरवभव धन लोभथी, कीधो क र अपायो रे, तीवरसें जे बांधीयां, तेहनो फल दुःखदायो रे. धन०६ नृप आदेशे पाँचसे, हल खेडवा अधिकारो रे, चास एक निज क्षेत्रनी, खेडावी धरी प्यारो रे धन० १९ भात चारीनो सर्वने, तुम्हे कीधो अंतरायो रे, तीव्ररसें जे बांधीयो, तसु विपाक ए आयो रे. धन० ११ मुनिवर अभिग्रह आदर्यो, एह करम क्षय कीधे रे, लेश्यु हवे आहारने, धीरज कारज सीधे रे. धन० १२ मास गया षट इणिपरे, पण मुनि समता लीनो रे, अणपामें अति निर्जरा, जाणे तिणे नवि दीनो रे. धन० १३ वासुदेव जिन वंदीने, पूछे धरी आनंदो रे, साधक साधु में निरमलो, कवण कहो जिनचन्दो रे. धन० १४ नेमि कहे ढंढण मुनि, संवर निर्जरा धारी रे, सहु साधु थकी अधिक छ, समता शुद्ध विहारी रे धन० १५ निजघर आवतां नरपति, वंद्यो मुनि शमकंदो रे, दीठो तब इक गृहपति, पाम्यो हरख आनंदो रे धन० १६ मुनि आल्या तसु आंगणे, पडिलाभ्या मन रागरे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003824
Book TitlePanch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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