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॥ अथ ढंढणमुनिजनी सज्झाय ॥
॥ वनिता विहसीने विनवें । ए देशी ॥
धन धन ढण मुनिवरु, कृष्ण नरेसर पुत्तो रे; गुणमणि लवणिम शोभतो, लखमी लीला जुत्तो रे, धन० १ कोमल कमलो का मिनी, मूकी एक हजारो रे, नैमिवचने वैरागीयो, लीधो संयम भारो रे. ग्रहणा ने आसेवना, सीखी शिक्षा सारो रे, विचरता आन्याजी द्वारिका, नेमि साथै सुखकारो रे धन० ३ एक दिन गोचरी संचर्या, करता गवेषणा शुद्धि रे,
आहार hit मिल्यो नही, मुनि मन समता बुद्धि रे, धन० ४ मुनि चिंते पुद्गल बलें, श्यो निज गुण अभ्यासो रे, उतसर्गे (उछंरंगे ) आतम बलें, कीजे शिवपद वासो रे, धन० ५ शक्ति यथा में आदरे, अपवादें अनेको रे, सहजे जो संवर वधे, तो न ग्रहे पर टेको रे, धन० ६ नितप्रति गोचरी संचरे, न मिले अन्नने पानो रे, प्रभुचरणे आवी नमी, पूछे तजी अभिमानो रे धन० ७ यु कारण कहो नाथ जी, एवडो ए अंतरायो रे,
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धन० २
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