________________
ध्यानी निथ सज्झाय
नारी थी मन नवि चले, अक्षय निज रस गेह ॥ ५ तप दीपक नी ज्योति थी, बाल्या कर्म पतंग । ज्ञान राज्य त्रय लोक नो, विलसे जेह निःसंग ॥ तप थी तन ने पीड़वे, उपशम रस भंडार । लोक सर्व सुखकार जे, मोह अग्नि जलधार ॥ ७ निज स्वभाव आनन्दमय, शांत सुधारस ठाम । योग महागज जीप ने, व्रतधारी शम धाम ॥ ८
ढाल-तार मुझ तार संसार सागर थकी महा शमधार सुखकार मुनिराय जे, ध्यान ध्यावा भणी जोग थावे; देह आधार संसार सुख निस्पृही, तेह जोगीश निज देव पावै; म० १ शुद्ध विज्ञान रस पान थी शांत मन, थावर जंगम दया धारी; मेरू जेम अचल आकाश जेम निर्मला, पवन जेम संग विण लोभ वारी; म० २ भव्य सारंग सुखकार उपदेश थी, देह शोभा तजी मोक्ष साधे ज्ञान शक्ति करी आत्म निज ओलखे, शुद्ध निज ध्यान ते मुनि आराधे; म० ३ अम निज देह नै मोक्ष गृह चढण ने, कही सोपान सम साधु सेवा; ध्यान ते साधू ने मोक्ष कारण कह्यो, विमल विख्यात निज गुण वहेवा; म०४ दांत मन विहग इंद्रिय भणी जे दमे, ज्ञान ना गेह पातक विडारे; कर्म दल गंज ने चित्त निर्मल थका, एम जोंगीश शिव मग सुधारे; म० ५ गिरि नगर कंदरा गेह शव्या शिला, चंद्र कर दीप मृग संग चारी; ज्ञान जल तप अदीन शांत आत्मा थका, धन्य निनथ सुविहित विहारी; म०६
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org