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ध्यानी निन थ सज्झाय
प्राण इन्द्रिय वली देह संवर करी, रोको संकल्प मन मोह भंजी; धन्य निज ध्यान आनन्द आलम्ब धरी, शुद्ध पद आत्मनी ज्योति रंजी; म० ७ हेय आदेय त्रिभुवन गणे साधु जे, क्षय करे पुण्य ने पाप केरो; आत्म आनन्द स्याद्वाद थी विषय ने, विष गणी भंजता कर्म घेरो, म० ८ कार्य संसार ना साधता ज्ञान विण, जगत में एहवा :बहुत दीसे; कापी भव दुख बली ज्ञान जल झीलता, एहवा साध दोय तीन दीसे; म० ६ बड़े प्रासाद में नरम पल्यक पर, रात जे पोढता नारी संगे; तेह गिरि कंदरा कठिन शिला परे, रहे नित जागता ध्यान रंगे; म० १० चित्त थिर राग ने द्वेष नों क्षय करी, जीप इन्द्रिय आरंभ छोड़ी; ज्ञान उद्दीपना थकी आनंदमय, देखो निज देव ने कर्म मोड़ी; म० ११ छोड़ो परसंग आत्मा-भणी सिद्ध सम, घ्यावता सुमति सुं मोह वारे; आत्म स्वभावगत जगत सहु अन्य गणी, ज्ञान निधि मोक्ष लक्ष्मी सुधारे; म० १२ तत्व चिंता करे विषय ने परिहरे, स्वहित निज ज्ञान आनंद दरीयो; सुमति संयुक्त तप ध्यान संयम सहित, एहवो साध चारित्र भरीयो; म० १३ एहवा पंडितो वचन रचना थकी, नित थुणे आत्म ने बहुत ऐसा; शुद्ध अनुभूति आनंद सु राचीगा, कटे भव पास दुरलभ तसा; म० १४ एहवा योग धारी जिके मुनिवरु; ध्यान निश्चल ते केईज राखे; ध्यान ने योग अणयोंग नी ए कथा, ग्रंथ अनुसार देवचन्द भाखे; म० १५
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