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गजसुकुमाल मुनीश्वर सज्झाय
निरुपम अन्यावाध सुखी थया रे, श्री गजसुकुमाल मुनींद रे.
धन धन जे० ३६ नित्यप्रति एहवा मुनि संभारीये रे, धरीये एहनु मनमांहींज ध्यान रे इच्छा कीजे ए मुनिभावनी रे, ज्यु लहीये अनुभव परमनिधान रे, धन धन जे० ३७ खरतर गच्छ पाठक दीपचन्दनों रे, देवचन्द्र वंदे ए मुनिराय रे सकल सिद्ध सुखकारण साधुजी रे, भव भव होज्यो सुगुरु सहाय रे धनधन जे ३८
इति श्री गजसुकुमाल सज्झाय समाप्त ध्यानी निर्ग्रथ सज्झाय
दोहा
परमारथ निश्चय करी, वधते मन
इन्द्रिय सुख निस्पृह थका, साधु इसा भाव शुद्धि भव भ्रमण थी, छटा जो काम भोग थी ऊभग्या, तन नी स्पृहा न रोश ॥ २ प्राण त्याग पण ध्यानथी, छूटे नहीं लगार । पर त्यागी मुनिवर तिके, ध्यान तणा आधार || ३ महा - परिषह साप थी, जन निंदा थी जास । क्षोभ न पामें मन तनक, वसता निज गुण वास ॥ ४ राग द्वेष राक्षस थकी, भय नवि पामे जेह ।
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वैराग ।
बड़भाग ॥ १ जोगीश ।
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