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________________ ढाल४-चौथी एकत्व भावना की (प्राणी घरीए संवेग विचार-ए देशी ) ज्ञान ध्यान चारित्र ने रे, जो दृढ करवा चाह । वो एकाको विहरतां रे, जिन कल्पादि साय रे प्राणी। एकल भावना भाव ! शिव मारग साधन दाव रेप्राणी ॥१॥ भावा-बौथो भावनाको आधार-शिला स्वरूप तीसरी सत्त्व-भावना जक । क्योंकि पोथी एकत्व भावना का अधिकारी वही मुनि है, जो कि गत्तबाली है। चाहे शानी हो, तपस्वी हो, यदि सत्त्वहीन हो, तो वह एकाकी विचरने के अयोग्य है । इसलिए सत्त्व के पश्चात एकत्व का स्थान है। हे पुनि ! एके शान, ध्यान, और चारित्र को दृढ बनाने की इच्छा हो, तो एकाकी विचरता वा जिनकल्पीपना साध । रे प्राणी ! तू एकत्व-भावना रखा कर । यही मोष का मार्ग है । अर्थात सिदिसाधना का दाव ( उपाय ) है । १ ... साधु भणी गृहवास नी रे, छटी ममता तेह । तो पण गच्छवासी पणो रे, गण गुरुपर छै नेह,रे प्राणी।। भावार्थ—यद्यपि साधु बनने से गृहवास की ममता तो छूट गई। फिर भी गच्छवासी अवस्था में अपने सम्प्रदाय और गुरु पर स्नेह तो विद्यमान है ही। इसलिए कहते है कि त इनका प्रतिबंध भी छोड़ ... ।२ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003824
Book TitlePanch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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