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पंच भावना सज्झाय
मृत का पान करवाया । अपनी माता के व्यवहार से संसार का स्वार्थीपन देखकर राजा सुकोसल संयम लेने को तैयार हो गया । तब सुकोसल की रानी चित्रमाला ने कहा, हे राजन । आप का वंश कैसे चलेगा ? राजा बोला--अभी तू गर्भवती है, मैं तेरे उदरस्थ को राज्य देता हुँ । मेरे इस शुभ कार्यों में कोई विघ्न मत करो। यों समझा कर राजा सुकोसल ने अपने पिता मुनि कीर्तिधर के पास दीक्षा ले ली।
इस प्रकार की दीक्षा का पता चलते ही सुकोसल की माता रानी सहदेवी महलों से गिर कर मर गयी । और विशेष आध्यान के कारण जंगल में बाघिनी हुई।
घोर उपसर्ग-.
अब कीर्तिधर और सुकोसल मुनि ने चौमासी तप के साथ गुफा में चौमास बिताया। फिर पारणा लेने के लिये दोनों मुनि शहर की तर्फ आ रहे हैं । रास्ते में वह ( पूर्वजन्म की मां ) बाघिनी आ गयी। पिता बोले-वत्स ! भयंकर कष्ट आ रहा है। अत: मुझे आगे आ जाने दो और तुम पीछे हो जाओ ! पुत्र बोला--पिता जी ! क्षत्रिय का यह धर्म है कि युद्धक्षेत्र में पीछे पग न देना । मैं क्षत्रिय हूं, साधु हूं और तपस्वी भी हूं। इसलिए वीरतापूर्वक कर्मों से युद्ध करने का समय आया है । मैं समभाव से उपसर्ग को सहकर मोक्ष को साधुगा । आप अपने पुत्र का वीरत्व देखिये । इतना कहकर 'मुनि ध्यान लगा कर खड़े हो गये । अब वह बाघिनी पूर्व वैर के कारण मुनि ( अपने पुत्र ) पर टूट पड़ी। नखों से कोमल चमड़ी को विदार-विदार कर लोही पीने लगी।
सुकोसल मुनि एकत्व भावना में लीन बने हुए सोचते हैं, देह से मैं भिन्न हूँ। देह जड है, मैं चेतन हूँ। देह विनाशशील है, मैं अविनाशी हूं । देह के टुकड़े हो सकते हैं, मै अखण्ड हूं। देह को बुढापा आता है, मैं अजर
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