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प्रेमपूर्वक उसके सिरहाने खड़ी हुई मस्तक सहला रही थी तो उसने कहा"नर्स तोमार हाथ तो आमार माएर हाथेर मोतोन अत्यन्त प्रिय लागे।"
उसने सब लोगों को याद करके क्षमतक्षामना की। जब कोई उसके पास जाता तो वह उसके साथ धर्म की ही बातें करता। मंगलवार की रात में करीब११बजकर २० मिनट पर नर्स से कहा- 'नर्स ! आमार दादा के डेके दाओ, आमाके नवकार मंत्र दिवे ।" इतना कहने के कुछ ही क्षण बाद उसकी आत्मा स्वर्ग को ओर चली गई । हम लोगों ने प्रात:काल दुःखी हृदय से उसकी अन्त्येष्टि क्रिया की । दूसरे दिन उसकी माँ और काकाजी शुभराजजी कलकत्ता पहुंचे, पर उन्हें उसका मुख देखना नहीं बदा था, उसकी माँ अस्पताल जाने के लिए आग्रह करने लगी, पुत्र का मुख देखने के लिए हठ करने लनी । मैंने जब उसको अन्तिम भावना और पण्डित-मरण की बातें बतलाई तो उनका चित्त कुछ ठिकाने आया । दो दिन बाद जब काकाजो अगरचन्दजी का पत्र आया और उनमें उल्लिखित श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज की अमरवाणी पढ सुनाई तब मनोहर को माँ का चित्त स्थिर हुआ।
"परिजन मरतो देखिने, शोक करे मन मूढ़ ! अवसर वारो आपणो, सहु जन नी ए रूढ़"
(पंच भावना सज्झाय) मैंने पूज्य गुरुदेव श्रीसहजानन्दजी को एवं श्रीविचक्षणश्रीजी महाराज को उसके समाधि-मरण के दु:खद समाचार लिखे। श्रीगुरुदेव ने प्रत्युत्तर में लिखा:-मनोहर नी उत्तम भावना हतो तेथी उत्तम गति थई छ, फिकर कर्या जेवूनथी" । तमारो सद्भावनाए काम कयु छै । आवी मददज कामनो छे, बाको तो जीव अनादिनां फुटारामा फटकातो आवे जाय छ, तेमांथी जेओ समाधि-मरण
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