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पंच भावना सज्झाय ___सर्वोत्कृष्ट मुनि श्री कृष्ण वासुदेव ने प्रभु से पूछा कि भगवन्
आप के अठारह हजार साधुओं में सर्वोत्कृष्ट कौन है ? प्रभु ने फरमाया, कि ढंढण मुनि सर्व श्रेष्ट है। इसका कारण यह है कि छ: महीने होने आये हैं नितप्रति गौचरी को जाना और आहारादि न मिलना, तिस पर भी समता में लीन रहना, लोगों के प्रति द्वष और अपने प्रति दीनता न होने देना, कर्मों को न कोसना; प्रमुख २ विशेषतायें है। ऐसा सुनकर प्रसन्न होते हुये श्रीकृष्ण महल को लोट रहे हैं। राज मार्ग पर सामने से श्रीढंढण मुनि को पधारते देखकर श्री कृष्ण ने हाथी से उतर कर मुनिजी को वंदना की। इस प्रसंग को देखकर किसी सेठ ने मुनिजी को मोदकों की मिक्षा दी। मुनिजी भगवान के पास पहुंचकर आहार दिखलाते हुये बोले-आज अंतराय कर्म टूट गया। प्रभु बोले-यह आहार तेरी लब्धि का नहीं है; यह तो श्री कृष्ण की लब्धि का है। ढंढण मुनि ने इस बात का यह गुण लिया; कि आज प्रभु की कृपा से ही मेरे अभिग्नह की सुरक्षा हुई है । नहीं तो टूट जाता ।
कर्मों का चूग-प्रभुकी आज्ञा लेकर लाया हुआ मोदक परठने को चले। जिस आहार को परठना पडता है, उसे इस तरह मिट्टी या राख में मिलाया जाता है; कि उस पर चीटियाँ आदि न आवे इसलिये मुनिजी मोदकों का मिट्टी के साथ चूरा कर रहे हैं । और भावना से कर्म रूपी पुद्गलों का चूरण करते हैं । जब तक मेरा अभिग्रह फला नहीं है तब तक आहार कैसे ग्रहण करू: ? तथा साधक आहार तभी लेता है; जबकि साधना में अभिवृद्धि हो। इस प्रकार के चितन के साथ आत्म-तत्त्व में इतनी एकाग्रता बढो; कि उसी क्षण केवलज्ञान प्रगट हो गया। इस प्रकार श्री ढंढण मुनि ने अपना कल्याण कर लिया।
ढंढण मुनि के सम्बंध में श्रीमद् देवचंद्र जी रचित एक महत्वपूर्ण सझाय भी प्राप्त है।
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