SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुनियों की जीवतियों इससे सेठ वगेरे सुसमा के शव को देखकर रोते-रोते घर लौट आये। सुसमा के मुंड के लोही से चोर का सारा शरीर पुत गया । दौड़ते-दोड़ते चोर का सारा शरीर शिथिल हो गया। जिस सुसमा को पाने की तीव्र अभिलाषा थी' उसी का सिर हाथ से काटना पड़ा, इसलिये मन भी ग्लानि से भर गया। भय तो था ही, कि सेठ वमेरे पीछे आ रहे होंगे। इन कारणों से घबराहट का कोइ पार नहीं था। इतने ही में एक वृक्ष के नीचे एक मुनि को कायोत्सर्ग करते हुये देखकर उनके पास आकर कहने लगा, हे मुनि ! जल्दी से धर्मोपदेश दीजिये, नहीं तो देखिये, इस तलवार से इस कन्या के सिर की तरह तुम्हारा ही गला उतार देता हूं। मुनिने चोर का रौद्ररूप देखेकर सोचा, कि धर्म सुनने की इतनी त्वरता योग्यता को व्यक्त करती है । यथा इसे कोई उग्न भय अथवा आवश्यक कार्य है, अतः इतनी 'स्वरता है। उपदेश लेने का तरीका भी तलवार से बता रहा है। इसलिये ध्यान को छोड़ कर धर्म का अत्यंत संक्षेप रूप करते हुये बोले-भाई । १ उपशम-रविवेक और ३संबर ही धर्म है । मुनिजी तो इतना सा, परन्तु सारभूत उपदेश देकर नमोक्कार बोलते हुये जंघा पर हाथ रख कर आकाश मार्ग से उड़ गये। पापी से धर्मी--अब चिलातीपुत्र सोचने लगा कि इन तीन पदों का क्या अर्थ हो सकता है। फिर समझ में आया कि उपशम का अर्थ है क्रोध की शान्ति । मेरे हाथ में तो क्रोध का प्रतीक खङ्ग है । यदि मुझे उपशम चाहिये तो खङ्ग को फैकना होगा। विवेक का अर्थ है अच्छे कामों में प्रवृत्ति और बुरे कामों से निवृत्ति। मेरे एक हाथ में जो सुसमा का सिर है, यह दुष्टता का सूचक है। इसे भी छोड़ना होगा। इन दोनों को बड़ी दूर फेंक दिया । संवर का अर्थ है रोकना। मैं किसे रोकू ? फिर पांच इन्द्रियाँ और मन को रोकने का ध्यान आगया। यों सोचकर जैसे साध खड़े थे, ठीक उसी प्रकार उसी स्थान पर ध्यान लगाकर खडा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003824
Book TitlePanch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy