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पंच भावना सज्झाय
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हो गया । तथा यह नियम कर लिया कि जब तक इस स्त्री हत्या की स्मृति भी मेरे मन में रहेगी, तब तक कायोत्सर्ग करके खड़ा रहूंगा । अर्थात् तब तक मेरे शरीर को वोसिराता हूँ | इस प्रकार भावनाओं में साधुपन आने से चोर, जुआरी, शराबी, पल्लीपति वगेरे पापसूचक विशेषण हटकर मुनि चिलातीपुत्र बन गया । मुनिजी का शरीर सुसमा के रुधिर से पुता हुआ था, इसलिये उसकी गंध से बिलों में से निकल- निकल कर असंख्य चींटियाँ मुनि के शरीर को काटने लग गई । काटा भी तो इतना काटा कि पैरों की ओर से काटती२ मस्तक की तफ सुराक बनाकर निकलने का मार्ग बना डाला । सारा शरीर चलनी की तरह विध गया इतनी उग्र वेदना होते हुये भी, अपनी प्रतिज्ञा के पक्क े, ध्यान और योग में लीन, आत्मा और शरीर की भिन्नता विचारते हुए श्री चिलाती मुनि मेरु पर्वत की तरह अडोल ही खड़े रहे । इस अवस्था में केवल अढाई दिन की अल्प अवधि में ही आयुष्य समाप्त करके आठवें स्वर्ग में देवता बन गये ।
सार- इस कहानी में एकत्त्व - भावना और सत्त्व-भावना साकार रुप से पाठकों के सामने आरही है ।
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