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(१४) श्री अनाथी मुनि
(ढा० ४ गा० १७) कौशांबी नगरी के धनसंचय नामक इभ्य-सेठ के आप सुपुत्र थे। आप माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी आदि स्वजन समूह की ओर से भी महान सुखी कहलाते थे। किन्तु एक दिन आप की आँखों में ऐसी असह्य वेदना उत्पन्न हुई, जिससे सारा शारीर भार स्वरुप प्रतीत होने लगा। पिताने अपने लाडले लड़के को स्वस्थ करने के हेतु उपचार तथा सेवा करवाने में कोई कमी नहीं उठा रखी। अच्छेअच्छे अनुभवी चिकित्सक बुलवाये गये, पानी को नाई पैसा बहाया गया, परन्तु शान्ति की बजाय पीडा तो उत्तरोत्तर बढती ही चली। दिन की भूख और रात की नींद हराम हो गई । एक दिन आपने सोचा, पीड़ा का मूल कारण कर्म है । कारण मिटने से तज्जन्य कार्य स्वयं समाप्त हो जायगा । अतः मै यह संकल्प करता हूं। यदि मेरी यह वेदना मिटकर आज रात को मुझे नींद आजाय, तो मैं संसार का परित्याग करके चारित्र ग्रहण कर लूंगा। संयोग ऐसा हुआ, कि वेदना समाप्त हो कर रात को नींद आगई। फिर आपने सूर्योदय होते हो परिवार के सम्मुख अपना निश्चय प्रगट करके दीक्षा लेलो । राजा श्रेणिक भी अनाथ-फिर श्री अनाथी मुनि विहार करते२ राजगृही नगरी के मंडीकुक्षि नामक उद्यान में आ ठहरे। मगधाधीश ने जब इन मुनि जी को देखा, तब उनके रूप और लावण्य पर विस्मित होता हुआ घोड़े से उतर कर पूछने लगा कि, भगवन् ! आप कौन हैं ?
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