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पंच भावना सज्झाय
मुनि ने कहा-मैं अनाथी नामक निग्नथ हूँ।
राज बोला-आप जैसे व्यक्तियों का कोई नाथ न हो, तो मैं आप का नाथ बन सकता हूँ।
मुनि-बोले-राजा ! जब तू आप ही अनाथ है, तब मेरा नाथ कैसे हो सकता है।
राजा बोला-आप असत्य तो नहीं बोल रहे हैं न ? आप को ज्ञात रहे मैं मगघ नरेश हूँ। मेरे पास करोड़ों की संपत्ति है और लाखों का नाथ हूँ। ___ मुनि बोले --मेरे कहे हुये अनाथ शब्द का आशय तुम अभी तक नहीं समझ सके हो। __ राजा बोला-कृपया समझाइये । मुनि ने अपना जीवन वृत्तान्त सुनाते हुये कहा कि धन, संपत्ति, परिवार, माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी के होते हुये भी मेरी अक्षि-वेदना को कोइ नहीं मिटा सका । यह मेरा अनाथीपन था। तब से मैने समझा कि सारे प्राणी अनाथ हैं । कोइ किसी का नाथ नहीं। यदि कोई नाथ है, तो अपने आप का नाथ अपनी आत्मा ही है। जो संयमी है, इन्द्रियों के विषय भोगों का दास नहीं, बल्कि उनको जीतने वाला है, सर्वजीवों को अभय दाता है, मेरी व्याख्या के अनुसार वह सच्चा नाथ है। राजन् ! अब सोचलो ! तुम नाथ हो, या अनाथ । मुनि के इस उपदेश का ऐसा असर हुआ कि राजा का नाथ बनने का मोह नष्ट होते ही अंतर की आँखें खुल गई। अब राजा श्रेणिक श्री अनाथी मुनि का उपासक बन गया । सार:--कोइ किसी का नाथ नहीं है, यह अन्यत्व-भावना इस कथा में बिलकुल स्पष्ट है।
इति
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