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(१५) भरत चक्रवर्ती
(ढौ०५ गा० १६,) अयोध्या नगरी में श्री ऋषभनाथ भगवान के पुत्र श्री भरत चक्रवर्ती हुये । उनकी पच्चीस हजार देवता और बत्तीस हजार मुकुट बंधराजा सेवा बजाते।थे । उनके चौरासी लाख रथ, तथा छिन्नवे करोड़ पैदल सेना थी। और एक लाख छिन्नवे हजार रानियाँ थी। इस प्रकार छ: खंड की ऋद्धि और विपुल भोगों को भोगते हुये भी अंतरात्मा से विरक्त और अनासक्त थे । एक दिन का प्रसंग है कि चक्रवर्ती आरीसा-भवन में बैठे-बैठे अपनी सुन्दरता निरख रहे थे। इतने में एक अंगुली से अंगूठी के निकल जाने पर अन्य अंगुलियों के सामने वह अंगुली शोभा-विहीन नजर आने लगी। इस की पुष्टि के लिये अपने एक-एक करके सारे आभूषण उतार डाले । फिर सोचा, वस्त्र भी पुद्गल, गहने भी पुद्गल, शरीर भी पुद्गल, और क्या संसार का सारा खेल ही पुद्गलमय और क्षणभंगुर है । यों आरीसाभवन में ही अनित्य-भावना के बल से नित्य और शाश्वत आत्म तत्व को पाते ही केवल-ज्ञान हो गया।
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