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(१६) इलापुत्र
(ढा०५ गा० १६, ) इलावर्धन शहर में धनदत्त नाम का सेठ था। इलादेवी की आराधना से उसके एक पुत्र हुआ, अतः उसका नाम इलापुत्र रखा। एक दिन वह लड़का अपने मित्रों के साथ नाटक देखने को चला गया। वहाँ पर वह नटराज की लड़की को देखकर उस पर मुग्ध होगया । घर आकर माता पितासे कहने लगा कि मैं नटकन्या के साथ विवाह करना चाहता है। इस कार्य के लिये माता पिता के इन्कार होने पर इसने लड़की के पिता को बुलाकर अपनी राम-कहानी सुनादी वह बोला यदि तुम घर छोड़कर हमारी टोली में आ मिलो, और नाट्यकला सीखलो तो मैं मेरी न्यात की अनुमति से मेरी कन्या तुम्हें दे सकता है । इलापुत्र सब कुछ स्वीकार करके अंत में एक कुशल नाटककार हो गया, परन्तु बारह वर्ष व्यतीत होने पर भी अभी तक विवाह को कोई बातचीत ही नहीं हो रही है । एक दिन इलापुत्र के पूछने पर नटराज ने कहा, तुम अपनो अध्यक्षता में एक नाटक सम्पादन कर एक लाख रुपये ले आओ। फिर विवाह हो जायेगा । अब नाटक का सारा साज बाज लेकर इलापुत्र विवाह की आशा से धन कमाने को वह चल पड़ा।
नया नाटक--एक राजा की आज्ञा से राजमहल के सामने बड़े मैदान में नाटक को तैय्यारी होने लगी। एक बहुत लंबा वांस गड़ा हुआ, है रस्सियाँ तनी हुई है, वांस के ऊपर लकड़ी का एक फट्टा रखा है, फट्टे पर लोहे की कील है। उस कील पर अपनी नाभि टिकाकर एक हाथ में तलवार और एक हाथ में ढाल
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