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प्रभंजना नी सज्झाय
में अनेक वार अन्य जीवों से सम्बंध स्थापित कर अपना जन्म मरण रूप ससार बढाया है। इस पर जरा विचार करके देखिये ॥३॥ तब प्रभंजना चिंतवे रे। अप्पा । तूंछे अनादि अनंत । ते पण मुज सत्ता समो रे । अप्पा। सहज अकृत सुमहत ।सु०४ ____ भावार्थ-साध्वीजी के इस वक्तव्य के बाद प्रभंजना सोचने लगी हे आत्मा ! तं तो अनादि अनंत है, सहज है, अकृत्रिम है; तथा निजी गुणों से महान है । अब जिस को मैं वरने के लिये चली है। वह भी उपरोक्त गुण वाला आत्मा ही तो है । फिर मुझे इस वैवाहिक संबंध की लालसा क्यों हो रही है ॥४॥ भव भमतां सवि जीव थी रे । अप्पा । पाम्या सवि संबंध । माता, पिता, भ्राता, सुता रे । अप्पा । पुत्रवधू प्रतिबंध सु।५ ।
भावार्थ-संसार में जन्ममरण रूप भ्रमण करते हुये इस जीव ने अनेक जीवों के साथ में सारे संबंध स्थापित कर लिये । अर्थात् यह जीव माता, पिता, भाई, पुत्र, वधू, पुत्रवधू आदिब न चुका है ॥५॥
श्यों संबंध कहूं इहां रे । अप्या। शत्र मित्र पिण थाय । मित्र शत्रता वलि लहेरे । अप्पा । इम संसार स्वभाव । सु॥६॥
भवार्थ- इन सबंधों के विषय में क्या कहू ? जो शत्रु है वही मित्र बन जाता है तथा आज जो मित्र है स्वार्थ सिद्ध नहीं होने से वही शत्रु बन जाता है संसार का ऐसा ही स्वभाव है ॥६॥ सत्ता सम सवि जीव छ रे । अप्पा । जोतां वस्तु स्वभाव । ए माहरो ए पारको रे । अप्पा । सवि आरोपित भाव । सु॥॥
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