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प्रभंजना नी सरकार
भावार्थ-बस्तु स्वभाव को देखते हुये सारे जीव सत्ता की दृष्टि से एक समान हैं। यह मेरा और यह पराया, यह सब आरोपित अर्थात् कल्पित भाष है ॥७॥ गुरुणी आगल एहवं रे। अप्पा। जुठ केम कहवाय । स्व पर विवेचन कीजतां रे अप्पा । मांहरो कोई न थाय ।सु॥८॥
भावार्थ-निज का और पर का विवेचन करने पर यह निश्चित है कि इस आत्मा और आत्मधर्म के सिवाय मेरा कोई नहीं है। फिर गुरुणी जी के सम्मुख झूठ कैसे बोला जाय, कि इस दुनिया में दूसरा भी कोई मेरा है ॥८॥ भोगपणो पण मूल थी रे। अप्पा । माने पुदगल खंध । हूं भोगी निजभाव नो रे । अप्पा ।पर थी नहीं प्रतिबंधासु॥६॥
भावार्थ-वैवाहिक संबंध के अंदर भोगीपन का जो भाव है वह भी पुद्गलों का स्कंध ( समूह ) है अर्थात् पुद्गलों का भोगो पुद्गल ही है। मैं तो अपने आत्म स्वभाव का भोगी हूँ। पुद्गलों से अथवा दूसरों से मेरा कोई सम्बंध रुकावट ) नहीं है ॥६॥ सम्यक् ध्याने व्हेंचतां रे । अप्पा । हूं अमूर्त चिद्र प । कर्ता भोक्ता तत्त्व नो रे ।अप्पा। अक्षय अक्रिय अनूप रे-सु॥१०॥
भावार्थ-पुद्गल को और आत्मा को सम्यग् ध्यान पूर्वक भेद-ज्ञान द्वारा अलगर छांटा जाये तो मैं अमूर्त और ज्ञान स्वरूप है। आत्म स्वभाव का ही कर्ता और अनुपम सुख का भोक्ता हूं। तथा अक्षय और अक्रिय हूं। ॥१०॥
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