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प्रभंजना नी सज्झाय
सर्व विभाव थकी जुदो रे । अप्पा । निश्चिय निज अनुभूति । पूर्णानन्दी परिणमे रे । अप्पा । नहि पर परिणति रीति सु॥११॥ __ भावार्थ-आत्मा को जो अपने स्वरूप का अनुभव होता है, वह सर्व विभावों से निश्चित ही पृथक है । ऐसा विकल्प रहित निर्विकल्प पूर्णानन्द का रसास्वादन करने वाला परमात्मा फिर विभाव में कभी परिरमण नहीं करता। जैसे अमृत का स्वाद लेने वाला जहर नहीं चखता ॥११॥ सिद्ध समो ए संग्रहे रे । अप्पा। पर रंगे पलटाय । संयोगी भावे करी रे | अप्पा । अशुद्ध विभाव अपाय ।सु १२।
भावार्थ- संग्रह नय की दृष्टि से आत्मा सिद्ध परमात्मा के समान है। किन्तु विभाव का रंग चढ़ जाने से आत्मा विकृत हो गया यानि कर्म पुद्गल के संयोग के कारण आत्मा अशुद्ध तथा विभाव दोषवाला कहा जाता है ॥१२॥
शुद्ध निश्चय नये करी रे । अप्पा । आतम भाव अनंत । तेह अशुद्ध नये करी रे । अप्पा । दुष्ट विभाव महंत ।।१३। __ भवार्थ-शुद्ध और निश्चय दृष्टि से तो आत्मा के शुद्ध भाव अनंत हैं । अर्थात् अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत सुख आदि आत्म स्वरूप है । वही आत्मा अशुद्ध नय की दृष्टि से अनेक दुष्ट विभावों अर्थात् विकारोंवाला भी कहा जाता है १३॥ द्रव्य कर्म कर्ता थयो रे । अप्पा । नय अशुद्ध व्यवहार । तेह निवारो स्वपदे रे । अप्पा । रमता शुद्ध व्यवहार सु ।१४। ... भावार्थ-आत्मा को द्रव्य कर्म का कर्ता 'अशुद्ध व्यवहार नय' की दृष्टि
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