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________________ प्रभंजना नी सज्झाय ५३ से कहा जाता है। पर में कर्त्तापन निवारण करके स्वपदे अर्थात स्वभाव में रमण करने से शुद्ध व्यवहार नय कहलायेगा ॥ १४ ॥ व्यवहारे समरे थके रे । अप्पा । समरे निश्चय तिवार प्रवृत्ति समारे विकल्प ने रे ।अप्पा। तेथी परिणति सार सु।१५॥ भावार्थ-समता रूप आचरण से आत्मा अवश्य शुद्ध होता है। उस शुद्ध नय की प्रवृत्ति से आत्मा के विकल्प समाते हैं । विकल्पों की समाप्ति से आत्मतत्त्व की परिणति अर्थात निविकल्प दशा प्राप्त होतो है ॥ १५ ॥ पुद्गल ने पर जीव थी रे । अप्पा । कीधो भेद विज्ञान । बाधकता दूरे टली रे । अप्या । हवे कुण रोके ध्यान ।सु।१६। भावार्थ---अत: आत्मा को भेद विज्ञान के द्वारा ऐसा सम्पग् ज्ञान हो जाने से कि मेरी आत्मा पुद्गल शरीरादि एवं अन्य जीवों से पृथक हैं, सभी बाधक परिणाम नाश हो गये, अतः अब आत्मा के शुद्ध स्वरूप के ध्यान को कौन रोक सकता था ॥१६॥ आलंबन भावन वसे रे । अप्पा । धरम ध्यान । प्रगटाय । देवचन्द्र पद साधवा रे । अप्पा । एहिज शुद्ध उपाय ।सु।१७ भावार्थ-टे आत्मन् ! आत्मसिद्धि साधने के लिये यही शुद्ध उपाय है कि भावना का आलम्बन लेकर के धर्म ध्यान प्रगट किया जाय। ऐसा श्री देवचन्द्र जी महाराज कहते है ॥ १७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003824
Book TitlePanch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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