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________________ प्रभंजना नी सज्झाय सुज्ञानी कन्या ! सांभल हित उपदेश । जग हितकारी जिनेशरे सुज्ञानी०! कीजे तसु आदेश रे । सुज्ञानी०। ए आंकडी। १ । भावार्थ-राजकुमारी प्रभंजना की बढ़ती हुई संवेगधारा को सुदृढ़ बनाने के लिये साध्वीज़ी बोलो कन्याओं। यह संसार ही क्ले शमय है । भोग विलासमय जीवन को जो कोइ अपनाता है:, वह उसका आवेश ( विचार ) मिथ्या है मृग मरीचिका मात्र है समझदार बालिकाओं ! हित का उपदेश सुनो और जगत का हित करने वाले श्रीजिनेश्वर देव के उपदेश का पालन करो......१...... खरडी ने जे धोयवरे, कन्या तेह न श्रेष्ठाचार । रत्नत्रयी साधन करो रे । कन्या । मोहाधीनता वार रे सुज्ञानी २ भावार्थ-अभी आपकी सहेलियों ने जो मुक्त भोगी बनकर त्यागी बनने की बात कही थी, वह अनुचित है । जैसे अपने आपको जानबूझ कर कोचड़ में फंसाना, और फिर बाहर निकल कर शरीर वस्त्र आदि को धोने का प्रयास करना, यह श्रेष्ठ पुरुषों का आचार नहीं है। वैसे ही अपनी आत्मा को पहले तो विषय वासना रूपी कीचड़ में फंसाकर फिर उसे त्याग रूपी जल द्वारा शुद्ध बनाने की कोशिश करना ठीक नहीं है। उत्तम पुरुष का काम तो यह है कि पहले से ही विषय वासना से अपनी आत्मा को मलिन न होने दे । अतः मोह की आधीनता छोड़कर रत्नत्रयी अर्थात् ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना में लग जाइये।। जे पुरुष वरवा तणी रे। कन्या । इच्छ छैते जीव ।। श्ये संबंध पणे भणो रे । कन्या । धारी काल सदोव । सु३॥ . भावार्थ-हे बाला जिस किसी पुरुष को वरने की इच्छा है, वह जन्मान्तर के कौन से संबंध से मिला है । यह जीव तो एक बार नहीं अनादि काल से इस संसार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003824
Book TitlePanch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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