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परिशिष्ट (क)
जाता है। निर्ममत्व की दिशा में संकेत करते हुये कहा है कि किसी वषक द्वारा अपने को तथा स्वजनादि को भी मारते देखकर निश्चित स्थान और ध्यानासन से विचलित न हो।
पांचवीं बल-भावना में कहा गया है कि, अपत्य, कलत्र, आदि स्वजन वर्ग में जो अप्रषास्त स्नेह है, उसे, तथा गुरु-गच्छ-शिष्य-उपधि-शरीर आदि पर 'जो प्रशस्त राग है, उसे छोड़ देने का नाम मानसिक बल है । मानसिक बल में शारीरिक बल की भी अपेक्षा है। संक्षेप में सारी भावनाओं का मूल सत्त्व और बल को बतलाया है।
संघ में रहता हुआ भी तीसरे प्रहर में गोचरी तथा प्रान्त आहार करें । इन भावनाओं से भावितात्मा मुनि जिनकल्पी के पूर्व रूप की साधना करे। फिर जिनकल्प, परिहार विशुद्ध कल्प, तथा महालंद कल्प आदि में से एक को अंगीकार करे।
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